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Sunday, May 18, 2025

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सिर्फ सुषुम्ना का मार्ग ही हमें धर्म में स्थापित करता है और परमात्मा के साम्राज्य में ले जाता है|

मंजूषा खरे
सहजयोग ध्यान केंद्र मध्यप्रदेश

Mo.8319085686
9425862930

सहज योग में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि धार्मिक जीवन ऊर्जा की गति में संतुलन रखता है जिससे कुंडलीनि का सफलतापूर्वक उत्थान होता है| जब चक्र पर तनाव और दबाव अधिक नहीं होता है तब ऊपर उठती हुई ऊर्जा द्वारा उनके चक्र आसानी से भेदें जा सकते हैं |आत्म साक्षात्कार की स्थिति में धर्म का अर्थ है कि धर्म ही अंतरात्मा है| इस स्थिति तक पहुंचने से पूर्व यह जरूरी है कि हम धर्म के प्रति जागरूक हो तथा इसके अनुसार ही हमारा नैतिक आचरण हो जिससे परानुकंपी उपकरण कुंडलिनी जागरण के योग्य बन सके| हमारी सुषुम्ना नाड़ी महालक्ष्मी ऊर्जा की नाड़ी है |इस नाड़ी का प्रतिनिधित्व भगवान विष्णु करते हैं जो धर्म के मूर्तरूप है| सहस्रार का खुलना सहज धर्म चेतना व्यक्त करता है| जब हम अपना चित्त मध्य नाड़ी से दूर दाएं या बाई ओर ले जाते हैं और चाहते हैं कि धर्म से मुक्ति पा लें तब ऊर्जा की गति मध्य नाड़ी के चक्र में बाधा उत्पन्न करती है |्|जब चित्त एक दिशा में बहुत दूर चला जाता है तब जीवन में शारीरिक और मानसिक बिखराव उत्पन्न हो जाता है| लोगों को विभिन्न रोग हो जाते हैं्| यदि हम पिंगला नाड़ी में जरूर से ज्यादा लिप्त रहते हैं तो मृत्यु के पश्चात सामूहिक अतिचेतना हमें अपनी ओर आकर्षित करेगी| पिंगला नाड़ी की अति में सताने वाले अहंकारी राक्षस प्रकट होते हैं |यदि ईड़ा नाड़ी की तरफ जुड़ाव रखते हैं तो मृत्यु के बाद हम सामूहिक अवचेतन की ओर आकर्षित होंगे |ईड़ा नाड़ी की अति में हमें पूर्ण रूप से बाधित लोग मिलेंगे |यह दोनों ही स्थितियां हमें पृथ्वी पर एक दुख भरी जिंदगी जीने के लिए दोबारा जन्म लेने की ओर ले जाती हैं |
जो व्यक्ति बहुत अधिक कार्य करता है या सुस्त है उसे अति को छोड़कर मध्य में आ जाना चाहिए |जो व्यक्ति बहुत अधिक विचार करता है या योजना बनाता है वह देवी शक्ति या परमात्मा से एकाकार नहीं हो पाता| जो व्यक्ति अनैतिक जीवन जीता है वह दैवी गुणों का बोध खो देता है| धर्म के विरुद्ध कार्य करना ,पाप करना अपनी आत्म चेतना के विरुद्ध कार्य करना है| पाप चेतना को उत्क्रांति के पथ से हटा देती है | कुछ पाप विशिष्ट चक्रों को प्रभावित करते हैं जैसे —
मूलाधार चक्र सेक्स के बारे में समुचित समझ ना होने के कारण खराब रहता है| यौन दमन ,अत्यधिक कब्ज रहने से यह खराब होता है |अत्यधिक अहंकार के कारण की जाने वाली गतिविधियां अपनी कला या रचनात्मक ऊर्जा का अत्यधिक उपयोग स्वाधिष्ठान चक्र को खराब करता है |विशेष प्रकार के मीट एवं ड्रग्स, पैसों का घपला करना, भौतिक पदार्थों में लिप्तता हमें धर्म के मार्ग से हटा देती है और नाभि चक्र को खराब करता है |ऐसे लोगों में लीवर की परेशानी आने से चित्त और चेतना अशांत रहती है |जब आदर्श मानवीय व्यवहार का सम्मान नहीं किया जाता जैसे पिता -पुत्र, पति- पत्नी, आदर्श नागरिक तो हृदय चक्र की पकड़ आती है जो हमें मध्य में रहने नहीं देती| जब हमारे विचारों कर्मों या शब्दों में आत्म सम्मान की कमी होती है या गलत रूप से शासन करने से या शासित होने से कोई विशुद्धि चक्र पकड़ता है |आंखों का गलत उपयोग ,अनियमित विचार, मानसिक और भावनात्मक खेल खेलना, क्षमा ना करना एवं क्षमा ना मांगना इन कारणों से हमारे अंदर अशुद्धता आती है और हम मध्य मार्ग से हट जाते हैं्| जब हम सत्य को प्राप्त करने के बाद भी समर्पित नहीं होते और आध्यात्मिकता को लेकर अपनी ही मानसिक धारणाओं से चिपके रहते हैं तो सहस्रार की पकड़ आता है|* *उपरोक्त कारणों से हमारा आचरण धर्म के विरुद्ध हो जाता है और हम किसी न किसी अतिशयता की ओर चले जाते हैं्| इस प्रकार हम पुराने जमाने के नैतिक आचरण के पीछे के तर्क को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं्|
इसलिए अन्य संतों की तरह श्री माताजी ने भी कहा है कि अति को छोड़ देना चाहिए |आत्म संयम से हम मध्य नाड़ी के करीब रहते हैं | जो व्यक्ति अपना चित्त मध्य नाड़ी से दूर नहीं ले जाता है उसमें अबोधिता और सहजता के गुण रहते हैं्| *संयम से ही धर्म तक शीघ्रता से पहुंचा जा सकता है |लाओत्से कहते हैं कि धर्म ही वह है जिससे व्यक्ति मानसिक बाधा से सुरक्षित रहता है|

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