नमस्कार ।
आप सभी सन्माननीय नागरिको का, सत्य की खोज करनेवाले सभी साधको का हम सहजयोग ध्यान केंद्र की ओर से हार्दिक स्वागत करते है । ध्यान क्या है ? अपनी आराध्य दैवत के सामने आँखे मूँदकर बैठ जाना ,ध्यान है? नही ! क्योंकि जब हम अपनी आँखे मूँदकर चित्त एकाग्र करने का प्रयत्न करते है , तो असंख्य विचार हमारे मन, मस्तिष्क में डेरा डालकर बैठ जाते है , और ५ मिनट के लिये भी हम अपने आप का सामना नही कर पाते ! अभी अभी आप सभी ने योगासन किये है । योगासनो से हमे शारीरिक लाभ हो सकता है , परंतु हमारा चित्त शांत नही हो सकता ! चित्त शांत करने का एक सूत्र अपने योग दर्शन में पतंजलीमुनी बताते है , ‘योगा: चित्तवृत्तीनिरोधा’ अर्थात अपनी चित्तवृत्ती याने की विचारो पर नियंत्रण पाकर निर्विचार अवस्था प्राप्त करना ‘ध्यान’ है ।
और इस ‘निर्विचार अवस्था’को हम सहजयोग ध्यान के माध्यम से अनुभूत कर सकते है । यह ध्यान हमे परमपूज्य श्री माताजीने सिखाया है ! अपना भारत देश योग भुमी है , अपने गुरू व्दारा यह ज्ञान-ध्यान प्राप्त करने की हमारी सनातन परंपरा रही है ! उदाहरण के तौर पर आपने अगर ‘ज्ञानियाचा राजा’ मराठी ‘मालिका’ देखी होगी तो उसमे ज्ञानेश्वर महाराज को उनके गुरू व्दारा कुंडलिनी योग प्रदान किया गया, यह बात दिखायी है ! उसी प्रकार राम-लक्ष्मण,भरत,शत्रुघ्न को गुरू योग वशिष्ठ व्दारा और लव और कुश के कुंडलिनी का जागरण ऋषी वाल्मिकीने किया था । पूर्वकाल में एक गुरू केवल एक सत शिष्य को कुंडलिनी जागरण का यह दान दिया करते थे ! परमपूज्य श्री माताजीने ५ मे १९७० को सामुहिक आत्मसाक्षात्कार देकर, सामुहिक कुंडलिनी जागरण का जिवंत अनुभव हम और आप जैसे सामान्य गृहस्थ को प्रदान किया, और आज १५० से अधिक देश के लोग इस ध्यान का लाभ उठा रहे हैै, क्योंकि सहज ध्यान के अनेक लाभ है , और यह ध्यान सारे विश्व में पूर्णत: नि:शुल्क सिखाया जाता है ।
तो आईये आज हम सहजयोग क्या है , यह जाणते है ! जिस प्रकार पंच ज्ञानेन्द्रियों से बना हुआ हमारा बाह्य शरीर है (चार्ट की ओर इशारा करते हुए) उसी प्रकार असंख्य नस नाडीयों से बना हुआ यह हमारा सुक्ष्म शरीर है ! तुकाराम महाराज के शब्दो में कहे तो ‘बहात्तर कोठडया’ ‘काया रचियेली’ बहात्तर हजार नस नाडीयोसे’ हमारे सुक्ष्म शरीर की रचना हुई है, उसमे से एक नाडी ज्यो हमारे मेरूरज्जा के बाये बाजु में है इसे ईडा-नाडी कहते है , इस ईडा नाडी में हमारे मन मे आनेवाली हर चित्त लहरी संग्रहीत होती है, इसलिये कहा जाता है , की हमें सदैव शुभ बोलना चाहिये और शुभ विचार करना चाहिये । इस नाडी का अगर हम बहोत ज्यादा इस्तमाल करते है , तो हम मानसिक दृष्ट्या बिमार पडते है, परंतु सहजयोग ध्यान के माध्यम से हम इस नाडी को संतुलित और शुद्ध कर सकते है ! यह नाडी हमे शुद्ध इच्छाशक्ती प्रदान करती है , उदा. यहॉं आकार ध्यान करने शुद्ध इच्छाशक्ती इसी नाडी ने आपको प्रदान की है । अगर आप सदैव खुश मिजाज है, आनंद में रहते है, आप के मन में परमात्मा को पाने सदैव ललक बनी रहती है तो आपकी ईडा नाडी संतुलित है ! अपने मेरूरज्जा के दाहिने बाजूवाले नाडी को ‘पिंगला नाडी’ कहते है , यह हमारे क्रियाशक्ती की नाडी है ! भौतिक या आध्यात्मिक जगत में हम कुछ भी तभी हासिल कर सकते है, जब हमारी ईडा और पिंगला का, इच्छा शक्ती और क्रिया शक्ती का मध्य सुषुम्पा नाडी से मेल हो जाय ! जब ईडा पिंगळा, सुषुम्णा में विलीन होती है, तो अनादिकाल से हमारे पिंड में मूलाधार चक्र के ऊपर बैठी हुई कुंंडलिनी शक्ती छह चक्रो को लॉंघकर हमारे तालुभाग के उपर आती है । जब यह घटना हमारे अंतरंग में घटीत होती है , तब हमें आनंद की प्राप्ती होती है, हमे निविर्र्चार अवस्था तत्क्षण मिलती है | सहज शब्द का अर्थ है सरल और योग शब्द का अर्थ है’ मीलन’ जब हमारे पिंड मे स्थित कुंडलीनी माता ब्रह्मांडीय ऊर्जा से एकाकार होती है तो इसे योग या आत्मसाक्षात्कार पाना कहते हैं | इसी अनुभव को पाकर ज्ञानेश्वर महाराज ने कहॉं था , ‘ आज सोनियाचा दिनु , वर्षे अमृताचा धनु ’’ ! चैतन्य रूपी अमृतधारा हमारे तालुभाग से बहती है ! यह अत्यंत सुक्ष्म अनुभव है , इसे हर कोई पा सकता है, इस कुंडलिनी जागरण का वर्णन ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी के छठवे अध्याय में किया है ।
वे कहते है,
ईडा-पिंगला , एकवटती ।
गाठी तिन्ही सुटती ।
साही पदर फुटती चक्रांचे हे ।
ते कुंडलिनी जगदंबा |
चैतन्य चक्रवर्तीची शोभा|
जिनी विश्वविजाच्या कोंबा|
साऊली केली ॥
आज संत ज्ञानेश्वर नही है, और ज्ञानेश्वरी में वर्णित इस कुंडलिनी जागरण का अनुभव विश्व के सभी सहजयोगीयोंने लिया है , इसलिये हम इतने आत्म विश्वास से आपको बता सकते है, की आपके जीवन के हर क्षेत्र में सकारात्मक बदल लानेवाला , आपके जीवन को आनंद से परिपूर्ण करनेवाला यह ध्यानाअनुभव आप भी प्राप्त कर सकते है ! सिर्फ आपके हृदय श्रध्दा होनी चाहिये और श्रीमाताजी के प्रति पूर्ण समर्पण भाव होना चाहिये ! क्योंकि भगवदगीता कहती है , ‘श्रध्दावान लभते ज्ञानम । ज्ञानम लब्धवा पराम शांतीम् अचिरेण अधिगच्छति ।
अर्थात जिसके हृदय में श्रध्दा है, केवल उसेही यह अमृतमयी ज्ञान मिलेगा और यह ज्ञान प्राप्त होते की परम ऐसी शांती उस साधक के हृदय में जाग्रत होगी । और यह सुंदर अनुभव पाकर तुकाराम महाराज जैसे वह भी गाने लगेगा,
‘‘आनंदाचे अंगी आनंद तरंग
आनंदची अंग आनंदाचे !!’’
तो आईये इस आनंद को अपने मेरूरज्जापर अनुभूत करते है , सहजयोग सिखते है ॥
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मनिषा थिगळे
नागपूर
नागपूर
Mo.9175733671